उम्मीदों की उम्र आदमी की नीयत तय करती है। जेहनियत और जमीर पाक-साफ हैं तो आस का एक सिरा भी घटाटोप अंधेरे में हाथ ही आ ही जाता है, वरना बेईमानी और दूसरों को लूटकर अपने घर भरने की कुटिल मंशाएं दिमाग में चल रही हों तो उम्मीदों के कितने ही ऊंचे सितारे आसमान में बंधे हों वे ट्विन टावर की तरह भरभराकर ढह जाते हैं।
कल 28 अगस्त 2022 को नोएडा के सेक्टर 93-A में सुपरटेक डेवलपर्स के ट्विन टावर के गिरने की तमाम खबरों के बीच एक खबर सुपरटेक डेवलपर्स के कर्ता-धर्ता आरके अरोड़ा को लेकर यह भी थी कि उन्हें पूरा यकीन था कि ये इमारतें नहीं गिरेंगी।
उनकी उम्मीद हिली भर थी लेकिन टूटी नहीं थी।
दरअसल, यह यकीन उस ताकत, रसूख और व्यवस्था की दरारों में केंचुए की तरह घुसकर जगह बनाने के भरोसे ही था जिसने उन्हें इलाहबाद हाईकोर्ट के 2 साल में आए फैसले के खिलाफ देश की सबसे बड़ी अदालत में 7 साल तक लड़ाई लड़ने की कुव्वत दी थी। अक्टूबर में आए फैसले के बाद मार्च में खुदको दिवालिया घोषित करने का बहाना दिया था। 22 मई के फैसले को 28 अगस्त तक खींचकर लाने और कहीं किसी ओट में छिपकर इसे रोकने की शक्ति दी थी।
जाहिर है यह कवायद बताती है कि इस व्यवस्था में बिल्डर महोदय की जुगाड़ी जड़ें कितनी गहरी धंसी थी। एक यकीन था जो गठजोड़, रिश्वतखोरी के बीच व्यवस्था की दरारों में घुसकर बने रहने की कीमत से हासिल हुआ था। और यह यकीन इतना मोटा हो चुका था कि उन्हें लग रहा था कि बिरादर जब इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले से यहां तक आए हैं तो यहां से कुछ और दशक खिंचने में क्या दिक्कत है।
दरअसल, हिम्मत की दाद देनी होगी बिल्डर महोदय आरके अरोड़ा कि जब उनके भ्रष्ट नीयत पर खड़े ट्विन टावर को ध्वस्त करने का फैसला आ गया था तब भी धांधली, लूट और सैटलमेंट वाले इस सिस्टम से उनकी एक आस और उम्मीद भी बची थी, लेकिन वह इस न्याय व्यवस्था से आस लगाई शोषित जनता की नीयत के आगे भरभराकर ढह गई।
किसकी कितनी कहानियां? किसने सुनी सिवाय अदालतों के?
बीते दो दशकों में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और नियमों को ताक पर रखकर हरा-भरा हुआ रियल स्टेट सेक्टर दिल्ली-एनसीआर ही नहीं बल्कि पूरे देश में जितनी गगनचुंबी इमारतों का अंबार लगाता रहा है उसके पीछे दर्द की ऐसी कहानियां थीं जिन्हें केवल अदालतों द्वारा ही सुना गया है।
और यकीन जानिए यह कहानियां अब भी बदस्तूर दर्ज हो रही हैं-
नोएडा, गुरुग्राम से लेकर मुंबई तक बिल्डरों द्वारा आम आदमी को घरों का सपना दिखाकर धांधली मचाने की खबरें आती रहीं हैं , कहीं पैसे लेकर घर नहीं दिए गए तो कहीं, खस्ताहाल घर थमाए गए, कहां बिल्डिंगे एक बारिश में जमीदोज हो गईं और लोग मुआवजे के लिए दर-दर भटकते रहे तो कहीं डबल होती ईएमआई के बीच घर होने के बावजूद लोग किरायों के घरों में रहने को मजबूर हुए। आखिर इन लाखों आम आदमी के दुखों की कहानियों को सुनने की चौखट थी ही कहां? और अब भी कहां है सिवाय अदालतों के?