प्रयागराजःइलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट पर आधारित किसी मामले में संज्ञान लेने के समय धारा को जोड़ या घटा नहीं सकता है, क्योंकि ट्रायल कोर्ट द्वारा केवल आरोप तय करने के समय ही इसकी अनुमति है.
यह आदेश न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी ने अपर सत्र न्यायाधीश के फैसले व आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर दिया है. इस मामले में शिकायतकर्ता ने अपने पति रोहित कश्यप, जेठ ऋषि, ससुर अमर नाथ, उनकी भाभी व रिश्तेदार अरविंद कुमार के खिलाफ आईपीसी की धारा 498ए, 504, 506, 120बी, 342, 377, 376 और डीपी एक्ट की धारा 3/4 के तहत एफआईआर दर्ज कराई. शिकायतकर्ता ने संज्ञान के स्तर पर न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष अर्जी दाखिल कर अनुचित जांच का आरोप लगाया.
आपराधिक पुनरीक्षण में कहा कि आरोप पत्र हल्के अपराध में दाखिल किया गया है, जबकि पर्याप्त सबूत होने के बावजूद चार्जशीट में गंभीर प्रकृति के अपराध को शामिल नहीं किया गया. मजिस्ट्रेट ने आंशिक रूप से पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार कर लिया. याची की ओर से कहा गया कि मजिस्ट्रेट उस अपराध के अलावा किसी अन्य अपराध को जोड़ या घटा नहीं सकता, जिसके लिए आरोप पत्र दाखिल किया गया है.
दूसरे पक्ष की ओर से कहा गया कि मजिस्ट्रेट पोस्टमास्टर के रूप में कार्य नहीं कर सकता और वह उपलब्ध सामग्री के आधार पर न केवल उन अभियुक्त को बुलाने के लिए अपना मस्तिष्क लगा सकता है जिसके खिलाफ आरोप पत्र नहीं था, बल्कि उनका संज्ञान भी लिया जा सकता है.
सुनवाई के बाद कोर्ट ने कहा कि केस डायरी में उपलब्ध सामग्री के आधार पर जिन आरोपियों के नाम चार्जशीट में नहीं है. उनको सम्मन करने में मजिस्ट्रेट ने कोई गलती नहीं की है. इसमें कोई विवाद नहीं है कि उन आरोपियों को सम्मन के लिए पर्याप्त आधार है. आईपीसी की धारा 406 के तहत सभी आरोपियों के खिलाफ मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान कानूनी रूप से गलत है, इसलिए धारा 406 के तहत अपराध के लिए संज्ञान लेने का आदेश रद्द किया जाता है.
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