गाजीपुर: गौसपुर गांव में रामलीला (ghazipur ramleela) महज श्रीराम के जीवन के अलग-अलग प्रसंगों के नाटकीय मंचन तक सीमित नहीं है यहां की रामलीला (ghazipur ramleela news) सांप्रदायिक, सामाजिक सौहार्द को मजबूत करती है। गांव की रामलीला में हर साल हिन्दू परिवार के साथ ही मुस्लिम परिवार भी बराबर की भूमिका अदा करते हुए रामलीला के मंचन में अहम भूमिका अदा करते हैं।
इसी गांव के रहने वाले पूर्व ग्राम प्रधान कलीम खान उर्फ झन्ने बताते हैं कि साल 2003 में उन्हें रामलीला समिति का अध्यक्ष बनाया गया। उस समय रामलीला खुले मैदान में मंचित होती थी। उन्होंने ग्रामीणों और जनप्रतिनिधियों से आर्थिक मदद लेकर सीमेंटेड मंच का निर्माण कराया जिससे खुले में रामलीला मंचन में हो रही परेशानी से निजात पाया जा सकें।झन्ने खान ने आगे बताया, ‘हमारे गांव में धार्मिक सौहार्दपूर्ण माहौल के बीच हर साल गांव में रहने वाले सभी धर्मों के लोगों के सहयोग से रामलीला का मंचन कराया जाता है। रामलीला में मुस्लिमों को भी किरदार अदा करने का बराबर मौका दिया जाता है। इस साल की रामायण में अरशद खान नाम के युवक को राजवैद्य का किरदार निभाने की जिम्मेदारी दी गई है।’
इससे पहले अल्लाउद्दीन अंसारी ने सती अनसुइया का क़िरदार निभाया है। शाहजहां खान ने जटायु का अभिनय किया है। इतना ही नहीं, गांव के महादलित समाज से आने वाले सुनील रावत को कैकयी और अखंड प्रताप रावत को सीता का अभिनय करने की जिम्मेदारी दी गई थी। गांव की रामलीला में अभिनय करने को लेकर रामलीला के लिए बनाई गई समिति निर्णय लेती है। बेहतर अभिनय करने वाला किसी भी धर्म या समुदाय का क्यों न हो उसको अपने अभिनय का हुनर दिखाने का मौका दिया जाता है।
झन्ने ने एनबीटी ऑनलाइन को बताया, ‘हमारे गांव में काफी पहले से हिंदू-मुस्लिम सौहार्द का उदाहरण देखने को मिलता है। जब हम बच्चे थे तब गांव में ताजिया और अन्य मुस्लिम समुदाय के त्योहारों में हिंदू परिवार बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए देखे जाते थे। तब से हमारे मन में हिंदू मुस्लिम से ऊपर त्योहारों को मिल-जुलकर मनाने की भावना घर कर गई है।
त्योहारों के मनाने के साथ ही उनके गांव के लोग महिलाओं को बराबर का दर्जा दिए जाने के पैरोकार हैं। इसकी बानगी भी देखने को मिलती है। रामलीला संरक्षण समिति में 8 लोगों को रखा गया है, जिसमें मुस्लिम महिला रुखशाना बेगम को भी रखा गया है।
उनका गांव गंगा के किनारे बसा है इसके बावजूद उनके गांव के लोग दुर्गा पूजा के बाद मूर्तियों को गंगा में विसर्जित नहीं करते हैं। मूर्तियों के विसर्जन के लिए गांव के समीप ही एक बड़ा सा पोखरा खोदा जाता है। इसमें गांव और आसपास के दुर्गा पंडाल में स्थापित मूर्तियों का विसर्जन किया जाता है। ऐसा करने से गंगा में होने वाले प्रदूषण पर अंकुश लगाने में कुछ हद तक मदद मिलती है।