मुलायम सिंह यादव वैसे तो कई सालों से अपनी बनाई पार्टी के संरक्षक की भूमिका में थे। पर उनकी उपस्थिति और मौजूदगी अभी भी अखिलेश यादव और लाखों कार्यकर्ताओं के लिए वटवृक्ष के मानिंद थी। जिसकी छत्रछाया में सपाई नारा लगाते थे जिसने न कभी झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम है।
अब मुलायम नहीं रहे। अब उनके बिना सपा के लिए आगे की राह कितनी मुश्किल होगी या सपा आगे कितना बढ़ेगी, यह बहुत कुछ उनके पुत्र अखिलेश यादव के सियासी कौशल पर निर्भर करेगा। अब आगे का सफर उन्हें पिता की छत्रछाया के बिना तय करना है और आगे की सियासी डगर कठिन ही दिखती है जो सपा के लिए चुनौती होगा।
आगे हैं कई इम्तहान
आने वाले वक्त में अखिलेश यादव को कई बड़े व कड़े इम्तहान से गुजरना होगा। इसमें उन्हें भाजपा से जूझना होगा और शिवपाल यादव की पार्टी से भी। आगे मैनपुरी लोकसभा सीट पर उपचुनाव होना है। मुलायम सिंह इसी सीट से सांसद थे। निकाय चुनाव है और सबसे बड़ा इम्तहान तो 2024 का लोकसभा चुनाव है। ‘नेताजी’ के न रहने पर अब सपा कार्यकर्ताओं को सदमे से उबारना और चुनाव के लिए तैयार करना सपा के लिए मुश्किल काम है।
‘नेताजी’ के साथ कार्यकर्ता व समर्थकों के साथ उनके भावात्मक रिश्ते की डोर को अखिलेश यादव कितनी मजबूती से बांध पाते हैं, इसके लिए उन्हें सावधानी से कदम उठाना होगा। सपा मुलायम के साथ काम कर चुके पुराने बुजुर्ग नेताओं के साथ पार्टी ‘नेताजी’ की विरासत को आगे बढ़ा सकती है। हालांकि मुलायम सिंह यादव कई मौकों पर अखिलेश को आशीर्वाद देकर साफ कर चुके हैं कि उनके राजनीतिक उत्तराधिकार व विरासत को लेकर कोई संशय नहीं है।
मुलायम ने सियासत में मानक गढ़े
नि:संदेह अखिलेश यादव की तुलना मुलायम सिंह यादव से नहीं की जा सकती है। पर अपनी सियासी यात्रा में मुलायम ने कई मानक गढ़े और चौंकाने वाले निर्णय भी लिए। मुलायम जमीनी राजनीति के माहिर थे। वह कार्यकर्ताओं की नब्ज पहचानते थे। कोई नाराज हो गया तो उसे मना लेना उनके बखूबी आता था। विरोधी दलों के नेताओं से भी वह निजी रिश्ते बना कर रखते थे। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सहित तमाम नेता मुलायम से निजी रिश्तों की बात करते हैं। इस तरह की सियासी विरासत को अब आगे ले जाना अखिलेश यादव के सामने बड़ा काम होगा।
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