– सवा सौ साल पुराने अल्मोड़ा के’हुक्का क्लब’ में खेली जाने वाली रामलीला को यूनेस्को ने सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में जगह दी है.
–यहां दशहरे में परंपरागत रूप से तीस से अधिक पुतले बनाए और जलाए जाते हैं, इनमें– रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद, मारीच, सुबाहु, अहिरावण और ताड़का जैसे चरित्रों का पुतला शामिल है.
–लखनऊ के आर्ट्स कॉलेज से पढ़ाई करके आने वाले अख्तर भारती इन पुतलों को बनाते थे. अल्मोड़ा के पुतलों की कला में अख्तर भारती का योगदान बहुत बड़ा माना जाता है.
यह कोई सवा सौ साल पुराना अल्मोड़े का विख्यात ‘हुक्का क्लब’ है जिसके प्रांगण में खेली जाने वाली रामलीला को यूनेस्को ने मनुष्यता के सांस्कृतिक इतिहास की सबसे अहम धरोहरों की सूची (हेरिटेज लिस्ट) में जगह दी है.
यह दशहरा कई मायनों में ख़ास है. समूचे उत्तर भारत में दशहरे के मौके पर दहन के लिए अमूमन रावण और उसके साथ मेघनाद और कुंभकर्ण के ही पुतले जलाए जाते हैं लेकिनअल्मोड़ा के दशहरे में रावण के पूरे खानदान के असुरों के पुतले बनाए जाते हैं.
अल्मोड़ा के दशहरे में परंपरागत रूप से तीस से अधिक पुतले बनाए और जलाए जाते हैं, इनमें रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद, मारीच, सुबाहु, अहिरावण और ताड़का जैसे परिचित चरित्रों के अलावा अतिकाय, नरान्तक, देवांतक और प्रहस्त जैसे असुरों तक के पुतले होते हैं.
‘हुक्का क्लब’ पिछले इकतालीस सालों से ताड़का का पुतला बना रहा है. जौहरी मोहल्ले में कुम्भकर्ण का, तो पलटन बाज़ार में मेघनाद का पुतला बनता आ रहा है.
ऐसे बनी मिल-जुलकर पुतला दहन की परंपरा एक समय यूं हुआ कि लखनऊ के आर्ट्स कॉलेज से कला की शिक्षा ग्रहण करने के बाद अनेक कलाकार अपने गृहनगर अल्मोड़ा लौट कर आए. इनमें नवीन बंजारा, नरेंद्रलाल साह और सुनील टम्टा के अलावा सबसे उल्लेखनीय नाम था अख्तर भारती का. पलटन बाज़ार में जो मेघनाद का पुतला बनता था उसमें ये सारे कलाकार अपना योगदान देते थे.
लेकिन अख्तर भारती का काम इस कदर उल्लेखनीय था कि उनकी देखादेखी बाकी मोहल्लों में बनाए जाने वाले पुतलों की गुणवत्ता में भी बड़ा सुधार आया. इस लिहाज़ से अल्मोड़ा के पुतलों की कला में अख्तर भारती का योगदान बहुत बड़ा माना जाता है.
हर साल दशहरे से तीन-चार महीने पहले हर मोहल्ले का कोई सयाना कलाकार खुद के ऊपर अपने मोहल्ले का पुतला बनाने का जिम्मा ले लेता है.
सौ-सौ, पचास-पचास रुपयों के हिसाब से चंदा इकठ्ठा होता है और किसी नियत दिन पुतले पर काम शुरू हो जाता है.
1980 तक ये पुतले धान की पराली से बनाए जाते थे. एक पुतले में दो सौ किलो पराली लगती थी और बीस से तीस फीट ऊंचा एक-एक पुतला तीन से साढ़े तीन सौ किलो का हुआ करता था.
1980 में त्रिभुवन गिरि ने पहली बार बीड़ी के पिटारों से निकालने वाली बाँस की खपच्चियों और उनके छिलकों और लोहे के तारों के फ्रेम से पुतले बनाने शुरू किए. ये पुतले पच्चीस से तीस किलो के होते हैं, नतीजतन, इन्हें जुलूस में घुमाना और लाना-ले जाना बेहद सुविधाजनक होता है. आज सभी पुतलों के निर्माण में यही तकनीक इस्तेमाल में लाई जाती है. बाँस के छिलकों की जगह अब अखबारी कागज़ और पेपरमैशी का प्रयोग होता है.
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